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प्यार की जीत

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                                      एक शांत सरोवर में दो हंसों का जोड़ा अक्सर आया जाया करता था। कभी वह जोड़ा आपस में सर से सर मिलाकर घंटों उसी मुद्रा में बैठा रहा करता तो कभी फड़फड़ाते हुए अपने पँखों को जोड़ सरोवर के पानी में फुदका करता ।                 नीले-नीले सरोवर के जल में श्वेत रंग का वह खुबसूरत जोड़ा कनक और चिन्मय के लिए जैसे उन दोनों के ही प्रेम का प्रतीक था। अक्सर ही दोपहर बाद से लेकर पूरी शाम कनक और चिन्मय उसी सरोवर के किनारे, उन दो हंसों के जोड़ें को देखते हुए, एक दूसरे के साथ बिताया करते थे। चिन्मय, कनक के हाथों की भरी-भरी चूड़ियों की खनक में खोया रहता तो कनक कभी   गहरी,   कभी अनकही चिन्मय की बातों   में।                   चिन्मय और कनक दोनों एक ही काॅलेज से थे।   काॅलेज में वह एक दूसरे को देखते तो थे पर यूँ मिला नहीं करते थे। काॅलेज के अन्तिम दिन चिन्मय ने कनक के सामने अपने प्यार का इज़हार किया था। कनक भी जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रही थी। तब से आज तक उन दोनों के प्रेम संबंध को दो वर्ष हो चुके थे।                न कनक ही कभी चिन्मय के परिवार से मिली और न चिन

गुम है किसी के प्यार में....

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             “वो वहाँ देखो” — पीयूष ने उर्मिला को आसमान के एक हिस्से की ओर अपनी उँगली से इशारा करते हुए कहा। “ कहाँ……. मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा” — उर्मिला ध्यान से देखते हुए बोली।              नीला चटक आसमान, चमक लिए अलसाया सूरज, उस पर सफेद बादलों की छोटी-बड़ी हज़ार टुकड़ियाँ, आगे पीछे होते हुए बस एक दिशा की ओर भागे जा रही थी। लेकिन थी सब एक साथ – एक दूसरे के आसपास। जैसे अस्तित्व अलग होते हुए भी सब किसी एक ही बन्धन से जुड़ी हुई हो।            भरी सर्दी की उस सुनहरी धूप में, घास पर सीधे सट कर लेटे हुए पीयूष और उर्मिला आसमान में उन्हीं बादलों की टुकड़ियों में ताँक-झाँकी कर रहे थे।             पीयूष ने इन्हीं बादलों को चित्रों का रूप दे अपना और उर्मिला का एक प्यारा सा घर, उस घर के भीतर इधर-उधर फुदकते दो नन्हें पाँव, और उन पाँव के निशानों के आसपास अपना पूरा संसार देख लिया था।             उन्हीं बादलों में अनेक तरह के चित्र उर्मिला भी देख रही थी। लेकिन वह पूरी तरह से यत्न कर रही थी वैसे ही चित्रों को देखने का जो जैसा उस समय पीयूष देख रहा था।               अ