प्यार की जीत

                        
            एक शांत सरोवर में दो हंसों का जोड़ा अक्सर आया जाया करता था। कभी वह जोड़ा आपस में सर से सर मिलाकर घंटों उसी मुद्रा में बैठा रहा करता तो कभी फड़फड़ाते हुए अपने पँखों को जोड़ सरोवर के पानी में फुदका करता ।
               नीले-नीले सरोवर के जल में श्वेत रंग का वह खुबसूरत जोड़ा कनक और चिन्मय के लिए जैसे उन दोनों के ही प्रेम का प्रतीक था। अक्सर ही दोपहर बाद से लेकर पूरी शाम कनक और चिन्मय उसी सरोवर के किनारे, उन दो हंसों के जोड़ें को देखते हुए, एक दूसरे के साथ बिताया करते थे। चिन्मय, कनक के हाथों की भरी-भरी चूड़ियों की खनक में खोया रहता तो कनक कभी गहरी, कभी अनकही चिन्मय की बातों में। 
               चिन्मय और कनक दोनों एक ही काॅलेज से थे। काॅलेज में वह एक दूसरे को देखते तो थे पर यूँ मिला नहीं करते थे। काॅलेज के अन्तिम दिन चिन्मय ने कनक के सामने अपने प्यार का इज़हार किया था। कनक भी जैसे इसी पल का इंतज़ार कर रही थी। तब से आज तक उन दोनों के प्रेम संबंध को दो वर्ष हो चुके थे।
               न कनक ही कभी चिन्मय के परिवार से मिली और न चिन्मय ही कभी कनक के घर गया।ऐसा नहीं है कि वह दोनों एक दूसरे के परिवार से मिलना नहीं चाहते थे या उन दोनों ने अपने बुजुर्गों के सामने अपने प्रेम को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी। अपितु भीतर ही भीतर दोनों ही यह जानते थे कि स्वयं उनके परिवार के बड़े-बुजूर्ग उनके इस अटूट रिश्ते को सम्मान की वह दृष्टि नहीं दे पाएंगे जो उन्हें मिलनी चाहिए। किंतु कनक और चिन्मय अपने इस प्रेम के संबंध को समाज में एक आधारभूत नाम देना चाहते थे — विवाह का नाम। इसी वजह से उस दिन चिन्मय ने कनक के घर आ उसके अम्मा - पिताजी से मिलने का कनक का प्रस्ताव स्वीकारा था। 
                जिस घर की रसोई तक में जूते-चप्पल का प्रवेश निषेध था, जिस घर के आँगन में रोज़ तुलसी की पूजा अति श्रद्धा भाव से की जाती थी, जिस घर में किसी भी मुख्य कार्य का उत्सव ग्रहों का मुहूर्त देख कर किया जाता था, जिस घर में बहुओं और अम्माओं के सर पर हमेशा पल्लू रहता था, जिस परिवार का हर एक भाव, विचार सर्वसहमति और आज्ञा पर जन्मता था, उस हिन्दू धर्म के ब्राह्मण कुल में पली-बड़ी कनक के परिवार के रीति-रिवाज़ और संस्कार ईसाई धर्म में पले-बड़े चिन्मय और उसके परिवार से बिल्कुल अलग थे।
                 किसी तरह अपने परिवार को मना कर चिन्मय, कनक के परिवार से मिलाने पहुँच तो गया था परन्तु भीतर ही भीतर वह यह भी जान रहा था कि अपने ही बनाए रीति-रिवाजों में जकड़े बिल्कुल ही भिन्न दो विचारधाराएं कभी भी एक होने का साहस नहीं कर पाएगी। 
            परन्तु अपने प्यार से विवश चिन्मय और कनक ने प्रयास का एक कदम ज़रूर लिया था। 
            हाँ, लेकिन न चिन्मय न ही कनक अपने प्यार पर किसी भी तरह की लाँछन की छींटें नहीं आने देना चाहते थे। इसलिए मर्यादाओं का आधार ले इधर चिन्मय, उधर कनक ने अपने अम्मा और पिताजी के अन्तिम फैसले का मान रखा। अपने प्यार का त्याग कर अपने बड़े-बुजूर्ग के कहे अनुसार जिधर कहा गया उधर विवाह कर लिया। साथ ही साथ चिन्मय और कनक ने एक दूसरे के विवाह पश्चात कभी न मिलने का वादा करते हुए एक वादा और भी किया - कि वह दोनों कभी भी एक दूसरे को और अपने प्यार को भूलेंगे नहीं।
           समय बीता। एक दूसरे की खुशी और ग़म से बेखबर कनक और चिन्मय अपने-अपने विवाहित जीवन में गुम हो गए।
           लेकिन तकदीर और प्यार की एक अलग तरह की हमजोली होती हैं। प्यार से तकदीर तो सँवरती ही है। तकदीर की वजह से मुरझाया प्यार भी महक उठता हैं।
           इसी तकदीर की मेहरबानी से पंद्रह वर्षों पश्चात उनकी फिर से मुलाकात हुई। दोनों ने ही अपना वादा बखूबी निभाया था। इतने वर्षों बाद बिना एक दूसरे को एक झलक भी देखे, उस दिन की मुलाकात में एक पल में ही दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया था।
           बेहद ही सादे लिबास में, बिना माँग-सिंदूर के कनक का बाहरी आवरण चिन्मय को खटक गया। पहले तो कनक की चूड़ियों की आवाज़ से ही वह, कनक के दिल की बात समझ जाता था परन्तु अब कनक के हाथों में वह चूड़ियाँ भी नहीं थी।
          इधर कनक भी चुप सी चिन्मय की आँखों में बीते वर्षों का ताना-बाना पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
          क्योंकि वह अपने अम्मा और पिताजी के साथ में थी इसलिए उसके पिताजी से चिन्मय को पता लगा कि उसके पति की मृत्यु तो विवाह के कुछ साल पश्चात ही हो गई थी। और तब से वह विदवा कहलाती है। 
          कनक के अम्मा और पिताजी भी अब पहले जैसे चुस्त भी प्रतीत नहीं हो रहे थे। उनके दबे हुए स्वरों में बिखरी हुई खामोशी की भनक मिल रही थी। 
          खैर, इसी तरह कुछ वर्ष और बीत गए। दिन का सूरज चढ़ता और ढल जाता। लेकिन उस दिन, दिन का सूरज चढ़ते ही कनक ने घर के द्वार पर चिन्मय को आते पाया। 
           अम्मा-पिताजी के आते ही, उनके सामने एक बार फिर चिन्मय ने कनक से विवाह का प्रस्ताव रखा। स्वयं की आपबीती सुनाते हुए कि वह अब तलाकशुदा हैं, और कनक के अम्मा-पिताजी से अपने प्यार को  सहारा देने के लिए, कनक का पूरा ख्याल रखने का विश्वास जताया। 
            बेटी की अश्रुओं के बीच कहीं खो गई उसकी ज़िन्दगी में, खुशियों को आते देख, अम्मा और पिताजी की आँखें छलक गई। 
            रीति-रिवाज़ और नियमों की परवाह किए बगैर अम्मा और पिताजी ने अपनी विदवा बेटी कनक का हाथ तलाकशुदा चिन्मय के हाथों में सौंप दिया। 
            प्यार कभी हारता नहीं। कनक और चिन्मय ने पहले भी अपने प्यार को मलिन होने से बचाने के लिए अपने-अपने प्रेम का बलिदान किया था। इसमें कनक और चिन्मय तो भले ही हार गए थे पर उनका प्यार जीत गया था। 
            और अब भी यह उन दोनों के प्यार की ही जीत थी जो वो दोनों अपने सच्चे प्यार और वफा की सच्चाई के बल पर पुनः मिले थे। 
           उस पूरी शाम कनक और चिन्मय ने उसी सरोवर के पास बिताई जो पहले भी उनके प्यार का गवाह रहा हैं। और आज भी उसी नीले-नीले सरोवर में श्वेत दो हंसों का जोड़ा हर विपरीत परिस्थिति के बाद भी प्रेम को जीवित रखे हुए हैं। 
         जैसे कि वह प्यार की जीत का जश्न मना रहे हो।

रजनी अरोड़ा 
(स्वरचित) 
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